कुँवर श्याम साहित्य और संगीत
बृजभूमि में, जो भक्ति साहित्य की मूल
भूमि है, संगीत के दो प्रकार
प्रचलित थे। पहला – समाज संगीत और दूसरा - अष्टयाम पूजा में हर पूजा के आरंभ में गाये
जाने वाले पद। दूसरे प्रकार के संगीत को, सामान्य तौर पर ड्योढ़ी
सगीत कहा जाता है। आज पंडित जसराज और पंडित मणिराम जैसे महत्वपूर्ण
गायकों के संगीत को ड्योढ़ी संगीत ही कहा जाता है।
समाज संगीत की एक अलग परंपरा है जिसमें गर्भगृह के बाहर, दालान में दो
पंक्तियों में गायक बैठते थे और उनके अंत में तबला या मृदंग वादक बैठता था। मुख्य
पंक्ति के आरंभ में एक गायक, दोहे या सोरठ से, संगीत प्रारंभ करता था, इसके पश्चात्
दोनों पंक्तियों में बैठे गायक, मंजीरों से संगत
करते हुए पद को दोहराते थे।
समाज संगीत का यह प्रकार हमारे वंश के एक घराने कटरा नील के
बड़े मंदिर में प्रचलित है I संगीत के दूसरे
प्रकार यानि ड्योढ़ी संगीत में, गर्भगृह की ओर
मुख करके, आंगन के पास
यानि ड्योढ़ी में कोई विशेष संगीतकार, पदगायन करता था
और उसके साथ तानपूरे और पखावज/तबले के साथ दूसरे संगीतकार संगत करते थे।
कुंवर श्याम जी के घराने के संगीत में जो ध्रुपद गाये जाते
थे, वो मुख्य रूप से इसी शैली में थे। ये बात उनके संगीत के
साहित्य यानि पदों की संरचना से स्पष्ट है।
हम यहां मुख्य रूप से कुंवर श्याम
के नाम से प्रसिद्ध श्रीलाल जी के साहित्य और संगीत की बात कर रहे हैं, लेकिन इस शैली
में श्रीलाल जी के पूर्वजों की भी अनेक रचनायें है जो रागबद्ध भी है I किन्तु उनकी बंदिशों का क्या रूप रहा होगा, यह स्पष्ट नहीं
है। फिर भी कुछ पद ऐसे है जो हमें प्राप्त हुए हैं और जिनकी हम यथास्थान प्रस्तुति कर रहे हैं।
भक्ति काल के प्रमुख कवियों में
सूरदास और कुंभनदास जैसे अष्टछाप कवियों का उल्लेख भक्ति साहित्य के अध्येता करते
ही हैं, किन्तु कुंवर श्याम
के पूर्वज घराने के पदों, के साहित्य में
एक विशेषता है कि प्राय पद के आरंभ में उसके विषय वस्तु से संबंधित एक दोहा या सोरठ
होता है, जो कुंवर श्याम
के लिखे पदों में नहीं पाया जाता।
हम इन सब पदों को साधारणत: दो भागों में
बांट सकते हैं।पहले प्रकार तो उन पदों का है जो विशेष ऋतुओं और उत्सवों में गाये
जाते थे दूसरे पद वह हैं जो साधारण किसी भी अवसर पर गाये जाते हैं जिनमें भक्ति और
आध्यात्म के पद सम्मिलित है।
भक्ति काल के कवियों की भांति कुंवर श्याम जी की रचनाओं को
भी मोटे तौर पर दो भागों में बांट सकते हैं। शुद्ध भक्ति, आध्यात्म और नायक
नायिका के प्रेम – श्रृंगार I इस में श्रृंगार
में भी संभोग श्रृंगार और विरह श्रृंगार दोनों प्रकार की रचनाएं हैं।
भक्ति की रचनाओं में शुद्ध आत्म निवदेन और लीलाओं के पद
सम्मिलित हैं। आत्म निवदेन की रचनाओं मैं एक विशेष रचना का उल्लेख कर रहा हूँ I
विलासखानी तोड़ी और भैरवी के मिश्र राग की इस रचना का अंतिम
चरण जब आता है ‘‘डूबत भुजा पसार’’ तो श्रोता
बिल्कुल आत्म विभोर हो उठता है।
इसी प्रकार शुद्ध निराकार ब्रह्म की उपासना का एक पद आरंभ
ही इस प्रकार से होता है ‘‘ब्रह्म को भेद, निर्गुण निराकार’’I इस रस की रचनाएं
बहुत हैं।
किन्तु कुंवर श्याम जी की रचनाओं में संभोग और विरह
श्रृंगार की बहुतायत है। कुछ रचनाओं में, उदाहरण के लिए, एक ध्रुपद में, बहुत बढ़िया रूप
वर्णन है ‘‘तेरो री चंद्रबदन, सुख को सदन’’I संभोग श्रृंगार
में छेड़ खानी और मान मनौवल के पद भी बड़े रसपूर्ण हैं l
जैसे ‘‘तोहे न रोकत याहि
न टोकत, मोही को छेरत माही’’ मान मनौवल के एक
पद में नायिका की शिकायत दृष्टव्य हैI ‘‘जाओ जी जाओ वाही
मनभाई के भवन, तुम जीते हम लाख बार हारे’’ इस पद में प्रतिनायिका
के भवन से लौटे नायक का वर्णन मनमोहक है I
‘‘अघरन अंजन नयन महावर पीत कपोलन बन्यो बनावरे’’ अपने अभिमान को
कोसते हुए नायिका कहती है ‘‘मधुवन को गवन
कीनो, मान में पड़ी रही मोसी विबुध कहिं’’। इस प्रकार के
अनेको उदाहरण है I
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