!! श्री
किशोरी रमण विजयते !!
२२ जून २०१४
यह संयोग की बात है
कि जब हमने, सन २०१० में, श्री कुंवर श्याम
की स्मृति को चिरस्थायी करने का प्रयास आरम्भ किया था; वह समय कुंवर श्याम जी की शताब्दियों का वर्ष था| गोस्वामी श्री लाल जी जिनको संगीत जगत कुंवर श्याम के नाम से
जानता है , उनका गोलोक गमन सन १९१० ईसवीं में हुआ था|
कुंवर श्याम जी की यश यात्रा जहाँ से प्रारंभ हुई, दिल्ली धर्मपुरा में स्थित, उस गोस्वामी जी के मंदिर
की स्थापना सन १८१o ईसवीं में हुई थी|
यहाँ मैं उचित समझता हुँ की अपना परिचय दिया जाय। नेरा नाम मनमोहन शर्मा है और
साहित्य जगत में, मुझे चित्रेश गोस्वामी के नाम से जाना जाता है I
मेरा सौभाग्य है की मेरे पिता श्री मदन लाल
गोस्वामी, कुंवर श्याम के नाती थे और दत्तक पुत्र भी।
इस नाते मेरे पास जो कुछ भी जानकारी कुंवर श्याम के जीवन, संगीत एवं साहित्य के बारे में है, में उसको संगीत जगत को समर्पित कर रहा हूँ I
धर्मपुरा के बहुत से
लोग , विशेष रूप में रोहतगी और तोपखाने वाले वंश के लोग वृन्दावन के
गोस्वामी माधव जी के मंत्र शिष्य थे , उनसे कंठी और गुरु
मंत्र की दीक्षा लेकर युगल सरकार श्री किशोरी जी और श्री किशोरी रमण श्री कृष्ण की
भक्ति में रत थे| उन्हें अपने गुरु का सानिंध्य और दर्शन करने में अत्यंत कठिनाई का सामना करना पड़ता था और
गुरु जी श्री माधव गोस्वामी अपने आराध्य श्री किशोरी रमण को छोड़ नहीं सकते थे| इस
समस्या को हल करने के लिए दिल्ली के धर्मपुरा में एक ऐसा स्थान ढूंढा गया, जिसे मंदिर के रूप में बदल कर गोस्वामी जी के आराध्य देव की प्रतिमाओ को
स्थापित किया जा सके और इस प्रकार अपने गुरुदेव को वृंदावन से दिल्ली लाया जा सके|
इस के लिए धर्मपुरा में एक सज्जन श्री रतन लाल से उनकी
बैठक सन १८१० में खरीदी गयी श्री किशोरी रमण का मंदिर स्थापित किया गया| यह
स्थान गोस्वामी माधव जी और उनके वंशजों का साधना स्थल बना| आज
२०१० में इस घटना को दो सौ वर्ष पूरे हुए|
सम्वत १५०० विक्रमीय
प्रारंभ का पता नहीं | पर जहाँ तक स्मृति जाती है ,
यह तिथि आज से लगभग छह सौ वर्ष पूर्व , कुंवर
श्याम जी की परम्परा का आरम्भ मानी जा सकती है | तब श्री
मिश्र नारायण नाम के एक संत आने मूल स्थान – मुलतान –
( आज के पाकिस्तान ) से भारत यात्रा पर निकले | इन श्री मिश्र नारायण जी के वंशज ही बाद में कुंवर श्याम की परम्परा के
वाहक बने |
मिश्र नारायण भक्ति काल के प्रसिद्ध व्यक्ति रहे होंगे , क्योंकि भक्ति काल में श्री मिश्र नारायण जी को श्रद्धा से स्मरण किया गया
है | ‘भक्तमाल’ भक्ति साहित्य के
इतिहास का प्रधान ग्रन्थ माना गया है | संत नाभादास के इस
ग्रन्थ में पौराणिक काल के भक्तों से प्रारंभ कर के , मध्य
काल तक के संतों के चरित्र विभिन्न छंदों में पद्धबद्ध किये गए हैं | श्री माधव गोस्वामी ने अपने रचनाओं के संग्रह के प्रारंभ में श्री मिश्र
नारायण की वंदना की है |
मिश्र नारायण अपनी यात्राओं के
प्रसंग में बदरिकाश्रम पहुंचे | यहाँ जोशीमठ में उन्होंने
काफी समय साधना की | ऐसा माना जाता है कि यहाँ उन्हें भगवान
नृसिंह का साक्षात्कार हुआ था | इस मान्यता को इस बात से
पुष्टि मिलती है कि श्री राधा कृष्ण के किशोरी रमण स्वरुप की उपासना करने वाले वंश
में भगवान नृसिंह की उपासना आवश्यक अंग बन गयी | आज भी इस
वंश की एक शाखा दिल्ली के कटरा नील में लाडली जी के मंदिर – गली
घंटेश्वर के ‘ बड़ा
मंदिर’ में नृसिंह जी के अवतार दिवस पर बड़ी धूम धाम से ‘
नृसिंह लीला ‘ का आयोजन करती है | इस लीला को दिल्ली के उत्सव
कैलंडर में प्रधान स्थान प्राप्त है |
अब यह कहना तो कठिन है कि यह परम्परा
कैसे कैसे आगे बढ़ी | बहुत सी बातें, अनुश्रुतियाँ कही सुनी के रूप में प्रचलित है | जैसे
मिश्र नारायण के वंशज वृन्दावन में बसे | वृन्दावन में कलि
दह के क्षेत्र में एक मंदिर उन्होंने किशोरी रमण जी की आराधना के लिए स्थापित किया
| इसकी पुष्टि नहीं है |
कुंवर श्याम जी की परम्परा का सम्बन्ध वृन्दावन के प्रसिद्ध भक्त संत हरि दास जी से भी बताया जाता है | श्री
हरि दास जी को ही वृन्दावन के सर्व प्रसिद्ध ठाकुर श्री बांके बिहारी जी के श्री विग्रह की प्राप्ति हुई थी | संगीत
सम्राट तानसेन के गुरु होने की बात तो जगत- प्रसिद्ध है ही | श्री हरिदास के
साथ कुंवर श्याम परम्परा कैसे जुड़ती है
वंशज होने के नाते या संगीत
घराने के नाते, यह कहना कठिन है |
मिश्र नारायण के बाद
की कुछ पीढियों के विषय में कोई ठोस जानकारी उपलब्ध नहीं है| इतना
ही अनुमान से कहा जा सकता है कि इस वंश की शाखाएँ अलग-अलग समय पर अलग-अलग स्थानों
पर आ बसीं | मुख्य से तीन बड़ी शाखाएँ वृन्दावन, दिल्ली और जयपुर में पनपीं |
वृन्दावन में इस वंश
का एक स्थान कलिदह के पास श्री किशोरी रमण का मंदिर रहा होगा ; ऐसा
अनुमान है | दूसरा ज्ञात स्थान शाहंजहाँ पुर वालों का मंदिर
था, जिसे आज पुतलियों वाला मंदिर कहा जता है | वर्तमान में इस मंदिर के प्रधान जयपुर के लाडली जी के मंदिर के गोस्वामी
परिवार के वंशज हैं|
दिल्ली में इस वंश
के पांच स्थान थे| कुंवर श्याम जी का सम्बन्ध धरमपुरा वाले
गोस्वामी के मंदिर से था |
दूसरा स्थान नयी सड़क
पर मालीवाडा में गोस्वामी पन्नालाल जी के पास था | अब
इस वंश में कोई नही बचा है | चांदनी चौक कटरा नील में तीन
स्थान थे – नयी बस्ती में गोस्वामी गंगा प्रसाद जी का मंदिर ,
गली घंटेशवर में बांके राय नवल गोस्वामी का मंदिर और लाडली जी का मंदिर|
गोस्वामी पन्नालाल
हमारे कुंवर श्याम के समकालीन थे | वे अच्छे संगीत-कार होने के
साथ-साथ संगीत शास्त्री भी थे | उन्होंने संगीत-दर्पण या
राग-दर्शन नाम के ग्रन्थ की रचना भी की थी | यह ग्रन्थ लिथो
रूप में प्रकाशित भी हुआ था | पर अब यह उपलब्ध नहीं है ;
शायद किसी पुस्तकालय या पिछली पीढ़ी के किसी संगीत-प्रेमी के पास कोई
प्रति उपलब्ध हो | यदि इस विषय में कोई सूचना किसी भी स्रोत
से मिल सके तो हम आभारी होंगे | इस आलेख में ऐसी जानकारी का
उल्लेख स्रोत के नाम का साकार किया जायेगा |
बांके राय नवल गोस्वामी अपने समय के प्रख्यात विद्वान थे |संस्कृत, हिंदी के अतिरिक्त उनकी पुरातन भाषाओँ और
लिपियों पर भी अधिकार था | क़ुतुब मीनार परिसर में लोहे की
लाट के दाहिनी ओर के बरामदे के दीवार में लगा एक संगमरमर का शिलालेख इस का प्रमाण
है | लोहे की लाट पर ब्राह्मीलिपि और संस्कृत भाषा में गुप्त
काल सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय की यशोगाथा उत्कीर्ण है |
गोस्वामी जी ने इस गूढ को पढ़ कर , शिलालेख के रूप
में इसे जन-सामान्य के लिए उपलब्ध किया | इस के
अतिरिक्त अंग्रजी सम्राट जार्ज पंचम के
१९११ के दिल्ली दरबार की स्मृति में ‘जार्ज प्रशस्ति’
नाम से एक पुस्तक भी प्रकाशित भी की थी | दिल्ली
के विभिन्न ऐतिहासिक स्मारको के छाया-चित्र इस पुस्तक की विशेषता है | यह पुस्तक अब दुर्लभ है|
गोस्वामी गंगा
प्रसाद १९४० के आस पास अपने ठाकुर जी को ब्रज में वापस ले गए | बरसाने
से लगभग एक मील पर ऊँचा- गांव नाम की एक टेकरी है| यह स्थान
गंगा प्रसाद जी के जमीदारी में था | यहाँ उन्होंने अपने
ठाकुर जी की पुनः स्थापना की | बड़ी उम्र में कई यत्नों के
बाद , तीसरी पत्नी से गोस्वामी जी को एक पुत्र की प्राप्ति
हुई थी | नाम था वंशीधर | वंशीधर के कई
संतान हुई पर बचा कोई नहीं | स्वयं वंशीधर का भी स्वर्गवास
हो चुका है | इस प्रकार इस वंश का अंत हो गया, पर उनके ठाकुर जी आज भी ऊँचा गांव में पूजित हैं |
बांके राय जी के
अपने कोई संतान नहीं थी | उन्होंने एक पुत्र को गोद लिया – गोस्वामी रोशन लाल, गोस्वामी रोशन लाल का देहांत हो
चुका है, वंशज भी समाप्त हो गए या दूर-दूर बिखर गए | गोस्वामी गंगाधर के वंश में
संगीत की परम्परा शायद थी नहीं | पर रोशन लाल जी का अवश्य ही
संगीत में प्रवेश था | उनकी विशेषता थी दांतों और थूक के
कुशल सञ्चालन से घुंघरुओं की ध्वनि और नाक से शहनाई बजाना | कश्मीरी
गेट क्षेत्र में मिनर्वा सिनेमा हाल में आयोजित एक अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन में
उन्होंने अपनी इन कलाओं का प्रदर्शन करके वाह वाही भी लूटी थी | यह १९३९ या १९४० की घटना है |
कटरा नील के ‘बड़ा
मंदिर’ में समाज पद्धिति के संगीत की परम्परा थी, जिसकी चर्चा आगे है | जिस ‘नृसिंह लीला’ का पीछे
उल्लेख हो चुका है , वह भी संगीत और नृत्य की एक लोक –शैली है; जिसका परिष्कृत रूप तिब्बत – लद्दाख के बोद्ध धार्मिक नृत्यों में देखने को मिलता है |
यह बात कुंवर श्याम
जी के वंश की |
अपने मन्त्र दीक्षा
लेने वाले शिष्यों के अनुरोध पर , माधव गोस्वामी सन १८१० ईसवी में
दिल्ली आये और धर्मपुरा में अपने आराध्य श्री किशोरी रमण जी की आराधना आरंभ की|
उनके अपने परिवार के विषय में कोई पक्की जानकारी नही है | उनके एक पुत्र श्री कीरत लाल गोस्वामी का नाम आता है | श्री कीरत लाल जी के चार पुत्र हुये |
इनमें सबसे बड़े श्री लाल जी थे | श्री लाल जी के
जन्म के विषय में अनुमान एक घटना से लगता है | १८५७ के
स्वाधीनता –संग्राम के समय श्री कीरत लालजी ने अपनी संतानों
को सुरक्षा की दृष्टि से दिल्ली से बाहर भेज दिया था , संभवतः
वृन्दावन | उस समय श्री लाल जी की आयु छह वर्ष बताई जाती है
अथार्त उनका जन्म १८५०-१८५१ में हुआ होगा | उनका देहांत १९१०
में फाल्गुन कृष्ण पंचमी को हुआ था , यानि मार्च १९१० में |इस अनुमान से श्री लाल जी का आयु काल १८५० से १९१० तक, साठ वर्ष का रहा | यह साठ वर्ष कुंवर श्याम परम्परा का स्वर्ण काल था |
श्री कीरत लाल जी के
अन्य तीन पुत्रों के विषय में कुछ विशेष ज्ञात नहीं है | अनुमान
यह है कि वे भी अपने मंदिर बना कर रहते होंगे | धर्मपुरा में
ही, वर्तमान जैन स्कूल के सामने एक छोटा सा मकान एक पुत्र के
पास रहा होगा | हमारे स्मृति काल में उनकी विधवा सुभद्रा देवी
वहाँ रहतीं थीं | उस मकान के भू-तल कि बनावट मंदिर जैसी थी
पर हमारी स्मृति में वहाँ मंदिर नहीं था | वह मकान अब बिक
चुका है |
कटरा नील में गली
घंटेस्वर में, बड़े मंदिर वाली गली के कोने पर एक मंदिर भी
कीरत लाल जी के पुत्र के पास था | उनके भी संतान ना होने के
कारण, यह मंदिर भी , इस वंश के पास न
रहा | छोटा-मंदिर नाम से विख्यात यह स्थान अब भी मंदिर है,
पर प्रबंध और देख रेख अब स्थानीय निवासियों का एक ट्रस्ट अपने ढंग
से कर रहा है | कुंवर श्याम जी की संगीत परम्परा में इस
स्थान का कोई योगदन नहीं है केवल इतिहास की दृष्टि से उसका उल्लेख यहाँ किया गया
है |
श्री कुंवर श्याम , श्री
लाल जी, के कोई
पुरुष संतान नही थी, केवल दो पुत्रियां थी | बड़ी का विवाह लाहौर में श्री प्रेमनाथ पंडित से हुआ था और छोटी का विवाह कटरा नील के गोस्वामी सांवल
दास से | ढलती आयु में श्री लाल जी ने अपनी संगीत परम्परा
बढ़ाने के लिए अपने दोह्तों में से किसी को गोद लेने का विचार बनाया |
श्री प्रेमनाथ पंडित
की गिनती लाहौर के रईसों में होती थी | उन्हें संगीत का भी शौक था|
उन्होंने अपने पुत्र शिवनाथ को संगीत की शिक्षा दिलाई| श्री शिवनाथ पंडित बड़े होकर अच्छे सितारवादक बने | बाद
में शिवनाथ जी ने अपने सुपुत्र ज्ञानेश्वर पंडित को भी सितारवादक बनाया |
शायद इसी कारण श्री
लाल जी का मन शिव नाथ पंडित को गोद लेने का था | पर
किसी कारण श्री प्रेम नाथ पंडित ने अपने पुत्र शिव नाथ पंडित को दत्तक के रूप में
दिल्ली भेजना स्वीकार नहीं किया | तब श्री लाल जी ने अपने
दूसरे दामाद कटरा नील के गोस्वामी सांवल दास से उनके पुत्र मदन लाल को माँगा |
इस प्रकार श्री मदन लाल गोस्वामी श्री लाल जी ‘कुंवर
श्याम’ की परम्परा के वाहक बने | श्री
लाल जी के देहांत के समय मदन लाल जी की आयु मात्र चार वर्ष थी| अपनी संगीत-धरोहर को समर्थ समर्थ व्यक्ति को सौपने की लालसा श्री लाल जी
के लिए कल्पना ही रह गयी|
श्री लाल जी की आयु
के साथ उनके आश्रय स्थान अथार्त किशोरी रमण जी के मंदिर की भी आयु बढ़ रही थी| १८१०
में मंदिर बनने के समय ‘ रतन लाल की बैठक’ कुछ वर्ष पहले तो बनी होगी | सौ वर्ष से अधिक की इमारत स्वभावतः कमज़ोर होती है | इसके अतिरिक्त १८५७ कें आन्दोलन में विजय पाकर अंग्रेजों ने लाल किले से
तोपों की मार की सीमा में आने वाली सभी इमारतों को ढहा दिया | इस मार की हद में कुछ बाहर की इमारतें भी आ गयीं | श्री
लाल जी का मंदिर भी इस मार का शिकार बना था | सन १९६६ के
भूकंप के बाद जब हमने मरम्मत कराई तब तोप के गोले का आधा टुकड़ा लगभग पाँच किलो के वजन का तीसरी मंजिल की दीवार में से निकला था |
जर्जर होने वाले
मंदिर को सँभालने के लिए श्री लाल जी ने लोहे के गर्डर लगवाए| इसी
सिलसिले में एक दिन एक ईंट उनके सिर पर आ गिरी | यह चोट उनकी
मृत्यु को और भी निकट ले आई और इस प्रकार मार्च १९१० में श्री लाल जी अपने आराध्य
श्री किशोरी रमण जी की शरण को प्राप्त हुये |
श्री लाल जी के
देहान्त के बाद एकदम जो शून्य पैदा हुआ, लगता था उसको भरने का कोई साधन या उपाय नहीं है I श्री लाल जी ने
अपने दौहित्र श्री मदनलाल गोस्वामी केा दत्तक तो ले लिया था, किन्तु अपनी विद्या
का कोई भी अंश उन तक पहुँचाने का समय ही नहीं मिला। क्योंकि मदनलाल जी की आयु उस
समय मात्र 4 वर्ष थी। किन्तु एक बात
अच्छी थी कि श्री लाल जी के संगी सभी अभी ऐसी आयु के थे, कि जो कुछ उन्हें
प्राप्त हुआ, वह यथासमय मदनलाल जी तक पहुँच सकें।
उन सब में एक प्रमुख
नाम गोस्वामी भगवत किशोर जी का था। भगवत किशोर जी ने तब नवीन आवष्कृत वाद्य
हारमोनियम पर अच्छी महारत हासिल कर ली थी। और ऐसा लगता है कि उन्होंने हारमोनियम
पर श्री लाल जी की संगत भी काफी समय की होगी।
ऐसा मैं इसलिए कहता
हूँ कि भगवत किशोर जी की इस योग्यता का कुछ अंश बाद में मुझे भी प्राप्त हुआ था।
दूसरा नाम दिल्ली के प्रसिद्ध व्यवसायी श्री कंवरसेन जी का था, जो संगीत में तो
निपुण नहीं थे लेकिन अपने मंत्र गुरू श्री लाल जी के साथ प्रतिदिन बैठते थे। इस
प्रकार सन्ध्या के समय, भगवान के शयन से पूर्व, जो गायन श्रीलाल जी
करते थे उनका बहुत अंश उनको लगभग कंठस्थ था।
तीसरा नाम श्री
गुट्टुमल जी का था जो श्री लाल जी के मंत्र शिष्य थे। गुट्टुमल ली को श्री लाल जी
के संगीत का काफी अंश प्राप्त हुआ था, बीसवीं सदी के आरंभ
में पंजाब जालंधर में लगभग हर वर्ष एक बड़ा संगीत
सम्मेलन, हरिजस संगीत सम्मेलन के नाम से होता था। श्री गुट्टू जी ने
उस सम्मेलन में कई बार भाग लिया और पुरस्कार प्राप्त किये। इस सबका श्रेय श्री लाल
जी की संगीत शैली को जाता है।
गोस्वामी मदन लाल ने
यशोपवीत सम्पन्न होने पर ठाकुर जी की सेवा संभालनी थी और वह श्री लाल जी की जीवन
शैली के अनुरूप अपने को ढाल रहे थे जिसमें संगीत भी सम्मिलित था।
उपर्युक्त तीनों
सज्जन उनके सांयकालीन उपासना में नियमित रूप से सम्मिलित होते थे, इस प्रकार श्री लाल
जी की संगीत शैली मदनलाल जी तक पहुँचती रही। यह संगीत सुमन जिस प्रकार प्रस्तुतित
हुआ उससे ऐसा लगने लगा कि श्री लाल जी के समय का संगीत वैभव एक बार फिर से सम्पन्न
हो पायेगा।
लेकिन भाग्य को यह
स्वीकार्य नहीं था क्योंकि गोस्वामी मदन लाल जी का देहान्त मात्र 33 वर्ष की आयु में 1937 में हो गया। इस
प्रकार एक बार फिर से शून्य की स्थिति बैदा हो गई I उस समय मेरी अपनी आयु, मात्र 7 वर्ष की थी। किन्तु
श्री लाल के उस समय तक वर्तमान साथियों ने हार न मानने का संकल्प ले लिया था और सन् 1938 की वसंत पंचमी की
अधिरात्रि को सात वर्ष के बालक अर्थात् मुझको जगाकर तानपुरा मेरे हाथ में थमा
दिया।
इस सारे विवरण से यह
तो स्पष्ट है कि मेरी संगीत शिक्षा नहीं के बराबर है, सिवाय एक तथ्य के कि गोस्वामी भगवत
किशोर जी ने थोड़ा सा स्वर साधन कराया था जिससे वो मेरे गुरूओं में से एक हैं। जो
कुछ मेरे पास है उसमें उनका अंशदान काफी है और मैं उनका आभार मानता हूँ।
गोस्वामी मदनलाल जी ने अपने जीवन के अंतिम वर्ष में दो शिष्य ग्रहण किये थे एक
का नाम श्री जैनकुमार जैन है जो प्रसिद्ध जलतरंग वादक हुए। दूसरे सज्जन श्रीगोरांग
चरण जो व्यवसाय से तो होम्योपैथिक चिकित्सक थे, लेकिन उनको वायलिन
वादन का शौक था और उन्होंने मदनलाल के अन्तिम महीनों में वायलिन पर संगत की। उनसे
भी मुझे इस शैली का कुछ परिचय प्राप्त हुआ।
तीसरे सज्जन, मेरी दृष्टि में
सबसे महत्वपूर्ण और गुरू श्रेणी में आने वाले श्री पाल जैन थे। श्री पाल जी
को गोस्वामी मदनलाल की संगत करने का काफी समय मिला होगा, क्योंकि मुझे जो भी
प्राप्त हुआ उसका सबसे अधिक श्रेय उन्ही को जाता है।
इस प्रसंग में एक
नाम उल्लेखनीय है जिसके बिना मैं अपने आप को कृतघ्न मानूंगा। उन सज्जन का नाम
उस्ताद अलाउद्दीन खान पखावजी का है। उस्ताद अलाउद्दीन खान श्री लाल जी के समय से
ही पखावज पर उनकी संगत करते रहे थे, यह क्रम मदनलाल जी
के समय पर भी जारी रहा था।
लंबे तडंगे पठान
उस्ताद अलाउद्दीन खान की पखावज अपने आप में अदभुत थीI आज
कल जो पखावज और मृदंग अधिकतर प्रयोग होती है, उनके मुकाबल में 6 फुट से अधिक लंबी
पखावज आज के युग में अदभुत ही मानी जायेगी। उस्ताद जी अपनी दोनों बाहों को फैलाकर
जब उसे बजाते थे तो उसकी गूंज आज भी मेरे कानों में गूंज जाती है। ध्रुपद की शैली की जो भी बारीकियां मेरे
संगीत में हैं, वह सब उस्ताद जी की ही देन हैं।
एक अन्य नाम उस्ताद
झंडूमल का भी है। ये भी श्री लाल के मंत्र शिष्य थे। उस्ताद
अलाउद्दीन खान पखावज में माहिर थे, तो झंडूमल जी तबला
वादन में पारंगत। कुंवर श्याम जी की ठुमरियों की काफी बारीकियां मुझे उनसे सुनने
और सीखने को मिली। जैसा कि मैने कहा कि मेरी संगीत शिक्षा नगण्य हुई। उसमें प्रधान कारण मदनलाल जी के बाद की हमारी कमजोर आर्थिक स्थिति, पहले स्कूली शिक्षा, फिर सरकारी सेवा के
कारण मुझे अपनी विद्या निखारने का समय ही नहीं मिला।
मेरे पिता गोस्वामी
मदनलाल के एक मित्र श्री केशवलाल श्रीवास्तव अपने जीवन के आरंभ से ही पिताजी के
संग उठते बैठते थे और उनकी संगीत के साथी और साधक रहे I उनके पिता श्री
ताराचन्द श्रीवास्तव श्री लाल जी के मंत्रशिष्य और उनकी संगीत साधना के साथी रहे।
इस प्रकार समय बीतता
चला गया। देश स्वाधीन हुआ और दिल्ली ने बटवारे का दंश झेला। इस में उस्ताद बुन्दु
खान सारंगी नवाज, उस्ताद अलाउद्दीन खान पखाव जी जैसे श्रीलाल जी
के सभी साथी देश छोड़ कर पाकिस्तान चले गये। यह देश का ही नहीं, हमारे अपने वंश की
अपूरणीय क्षति रही।
लाहौर से श्रीलाल जी
के बड़े दौहित्र पंडित शिवनाथ जी जिन्हें उनके पिताजी ने उचित समय पर दिल्ली आने
से रोक लिया था, विवश होकर अपने पुत्र और दो पुत्रियों के साथ
दिल्ली आये और उन्हें स्वाभाविक रूप से हमारे मंदिर में ही शरण लेनी पड़ी। शिवनाथ
जी के यह पुत्र श्री ज्ञानेश्वर पंडित तब तक संगीत और सितार वादन में दीक्षित हो
चुके थे। इनके दिल्ली आने का लाभ श्रीलाल जी के संगीत को मिला। पंडित शिवनाथ के
लाहौर के मित्र और संगीत साधक शिवनाथ जी से मिलने के लिए प्राय: मन्दिर आने लगे और
ज्ञानेश्वर पंडित के मित्रता दिल्ली के संगीतकारों से होती गई जिनमें एक प्रमुख
नाम उस्ताद हलीम जाफर अली खान का है, जो बाद में सितार
वादन के क्षेत्र में भारत वर्ष में विख्यात हुए।
शिवनाथ जी के
मित्रों में एक प्रमुख नाम पंडित शिंगलु का रहा
जिन्होंने 1953 में आकाशवाणी के
प्रसिद्ध पहले अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन का आयोजन और संचालन किया। यह दिल्ली के
निजामुद्दीन ईस्ट में रहे और ज्ञानेश्वर के साथ मैं भी प्राय: हर रविवार को इनके
घर पर होने वाली संगीत बैठकों में सम्मिलित होता था। इसका अप्रत्यक्ष लाभ मेरे
संगीत को हुआ। यद्यपि श्री लाल जी की सगीत शैली से उनका कोई सीधा संबंध नहीं था।
1960 से कई वर्षों तक
हमने मंदिर में श्रीलाल जी के देहान्त की तिथि कृष्णा पंचमी को एक नये उत्सव की
स्थापना की। यह उत्सव श्रीलाल जी के समय से ही मंदिर में होने वाले विभिन्न उत्सवों की नियमित सूची में सम्मिलित हो गया।
इस नये वार्षिक
उत्सव के उल्लेख का एक कारण है – इसमे हमने श्रीलाल जी और गोस्वामी मदनलाल जी के उन संगीत
साथियों का विशेष सम्मान करने का प्रयत्न किया जिनका श्रीलाल जी के संगीत को पुनर्जीवित करने में बड़ा योगदान रहा। इनमें
उल्लेखनीय नाम गोस्वामी भगवत किशोर जी, श्री ताराचन्द
श्रीवास्तव और श्री श्रीपाल जैन और श्री कंवरसेन जी के हैं। इन उत्सवों की भव्यता
से एक बार ऐसा लगा कि श्रीलाल जी के संगीत का वैभव एक बार फिर लौटने वाला है।
किन्तु कुछ आर्थिक, कुछ कानूनी कारणों से, यह परंपरा मात्र 4-5 वर्ष ही चल पाई।
कुछ समय बाद मुझे भी
मंदिर छोड़ कर करोल बाग आना पढ़ा I उसके बाद मेरे अनुज
मनोज गोस्वामी ने मंदिर का और संगीत परंपरा का यथासंभव निर्वाह किया I मनोज बहुत अच्छे
बांसुरी वादक थे पर उनका भी असमय देहांत
२००२ में हो गया और अब मंदिर की देखबाल उनका परिवार कर रहा है I
इसी प्रसंग में
हमारे इस वेबसाइट की सार्थकता है। हम यह प्रयत्न कर रहे हैं कि श्रीलाल जी के साहित्य और संगीत का एक संकलन हम आगे की पीढ़ियों के लिए
छोड़ सकें।
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